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असंगत नाटक

जगन्नाथ प्रसाद दास

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :43
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1387
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है असंगत नाटक.....

Asangat Natak a hindi book by Jagannath Prasad Das - असंगत नाटक - जगन्नाथ प्रसाद दास

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत की विविध प्रादेशिक भाषाओं के नाट्य/रंगकर्म को एक दूसरे के निकट लाने और उन्हें आधुनिक भारतीय रंगमंच का व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करने में हिन्दी ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परंतु बांग्ला, मराठी और कन्नड़ जैसी रंग-समृद्ध भाषाओं के मुकाबले ओड़िया का योगदान बहुत कम रहा है। पता नहीं ओड़िया में श्रेष्ठ नाटक लिखे ही कम गए या फिर किन्हीं कारणों से अनूदित नहीं हो सके। मई, 1976 में दिल्ली की प्रमुख नाट्य संस्था ‘‘दिशांतर’’ ने जब अचानक ओमपुरी को लेकर राम गोपाल बजाज के निर्देसन में ओड़िया के युवा नाटककार, कवि और कथा शिल्पी जगन्नाथ प्रसाद दास के नाटक ‘‘सूर्यास्तक’’ को प्रस्तुत किया तो हिन्दी रंगत में खासी हलचल सी महसूस की गई। श्री दास के दूसरे नाटक ‘‘सबसे नीचे का आदमी’’ के बाद यह तीसरा नाटक ‘‘असंगत नाटक’’ के नाम से प्रकाशित हो रहा है। इस नाटक में तमाम एब्सर्ड नाटकों की तरह कथानक एवं संवादों की अतार्किकता तथा पात्रों को अयथार्थता के साथ-साथ जीवन की ऊब, निराशा अन्तहीन प्रतीक्षा और निस्सारता वगैरह तो है किन्तु इनके अलावा भी इसमें बहुत कुछ है। इसका मूल मन्तव्य समय और वास्तविकता के जटिल संबंधों को समझने-समझाने का है। श्री दास एक सच्चे प्रयोगधर्मी नाटककार हैं। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से कभी अपने आप को दोहराते नहीं है। आप अपना निजी मुहावरा और रूप तलाशने के लिए सदैव तत्पर एवं बेचैन रहते हैं। आपके नाटकों के हिन्दी अनुवादों में निश्चय ही आधुनिक ओड़िया नाटक से हमारा दिलचस्प साक्षात्कार कराया है। आपकी रंगधर्मिता ने समकालीन हिंदी नाटक और रंगमंच को समृद्ध किया है।

जगन्नाथ प्रसाद दास: प्रयोगशील रंगधर्मिता


भारत की विविध प्रादेशिक भाषाओं के नाट्य/रंगकर्म को एक दूसरे के निकट लाने और उन्हें आधुनिक भारतीय रंगमंच का व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करने में हिन्दी ने अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। परन्तु बाँग्ला मराठी और कन्नड़ जैसी रंग-समृद्ध भाषाओं के मुकाबले ओडिया का योगदान बहुत कम रहा है। पता नहीं ओड़िया में श्रेष्ठ नाटक लिखे ही कम गये या फिर किन्हीं कारणों से अनुदित नहीं हो सके। बहुत समय तक केवल मनोरंजन दास के बनहँसी, अरण्य फसल और काठ का घोड़ा जैसे तीन-चार नाटकों को छोड़कर कोई भी उल्लेखनीय ओड़िया नाटक हिन्दी में न तो छपा और न ही मंचित हुआ। इसीलिए मई, 1976 में दिल्ली की प्रमुख नाट्य-संस्था ‘दिशांतर’ ने जब अचानक ओमपुरी को लेकर राम गोपाल बजाज के निर्देशन में ओड़िया के नाटककार, कवि और कथाशिल्पी जगन्नाथ प्रसाद दास ने नाटक सूर्यास्तक को प्रस्तुत किया तो हिन्दी रंगजगत में खासी हलचल-सी महसूस की गयी।

अपने इस प्रथम नाटक ‘सूर्यास्तक’ में नाटककार ने तमाम सुख-सुविधाओं और मान-सम्मान के बावजूद अपनी निजता और अर्थवत्ता के लिए छटपटाते, जूझते-टूटते व्यक्ति की अंतहीन त्रासदी को बड़ी काव्यात्मक भाषा और नाटकीय सूझ-बूझ के साथ प्रस्तुत किया है।
मूलत: फरवरी 1972 में लिखित दो अंकों में विभक्त इस प्रयोगधर्मी नाटक का मूल ओड़िया नाम था-सूर्यास्त पुर्वरू। जिसका हिन्दी अनुवाद है-‘सूर्यास्त से पहले।’ स्वयं रचनाकार ने हिन्दी में इसका नाम शाम होने तक रखा था। परन्तु ‘दिशान्तर’ के रंगकर्मियों को सूर्योस्त अधिक संगत लगा और निर्देशन के दौरान रामगोपाल बजाज ने इसके अंत में (विपर्यय ध्वनि के अच्छा लगने के कारण) ‘क’ जोड़कर मंचन के लिए इसका नाम सूर्यास्तक (जो शायद ‘सूर्यास्त तक’ का संक्षिप्त या मिश्र रूप भी है) रख दिया था। 1976 में ही पुस्तकाकार प्रकाशन के समय लेखन-प्रकाशन ने अन्य भाषाओं में अनुवाद की दृष्टि से सरल एवं स्पष्ट होने के कारण इसका नाम सूर्यास्त ही रखा।

‘सूर्यास्त’ के केन्द्रीय चरित्र दीपंकर को नाटककार ने सूत्रधार के रूप में भी प्रयोग किया है। अपने चालीसवें जन्म-दिन के अत्यन्त निर्णायक, नाजुक एवं महत्वपूर्ण मौके पर अपने जीवन की सफलता-असफलता का लेखा-जोखा करते हुए उसका आत्म-कथन और सम्बन्धित पात्रों (बॉस संजय, पत्नी शीला और प्रेमिका सरोज) का अन्तरंग परिचय खासा दिलचस्प है। नाट्य-रूढ़ि के रूप में ‘कोर्ट’ का इस्तेमाल भी कथ्य के प्रभावशाली उद्घाटन में बेहद सहायक सिद्ध हुआ है। यह अलग बात है कि ओड़िया में सम्भवत: पहली बार प्रयोग किये गये इस नये शिल्प को हिन्दी के जागरूक पाठक-दर्शक मधु राय के गुजराती नाटक किसी एक फूल का नाम लो तथा तेंदुलकर के मराठी नाटक शान्तत: कोर्ट चालू आहे में इससे पहले ही देख चुके थे। परन्तु इस संदर्भ में यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि इसके लिखने (रचनाकार 1972-73) के बहुत बाद यानी 1976-77 तक भी इसके लेखक ने ‘किसी एक फूल का नाम लो’ को देखा-पढ़ा नहीं था।

सूर्यास्त का केन्द्रीय चरित्र दीपंकर मूलत: आत्म-रति और आत्म-दया में डूबा अस्पष्ट व्यक्ति है। वह अपने परिवेश और सम्बन्धों से बौखलाया हुआ है। वह अपने वर्तमान से असंतुष्ट और क्रुद्ध है किन्तु यह नहीं जानता कि वास्तव में अपने और दूसरों से चाहना क्या है ? उसकी असमर्थता और निरर्थकता की छटपटाहट तथा उसकी निष्क्रियता और अकर्मण्यता में कोई सार्थक तालमेल नहीं बैठता। यह विडम्बना ही है कि अपने सतही एवं बनावटी जीवन से उकताया-ऊबा हुआ दीपंकर कई जगह स्वयं सतही और बनावटी लगने लगता है। परन्तु यदि हम याद रखें कि आरम्भ में उसके जीवन का एक बड़ा लक्ष्य थियेटर करना ही था-तो उसके चरित्र की इस (अति) नाटकीयता और नाटक के शिल्प में एक कलात्मक अन्विति देखी जा सकती है। सारा का सारा नाटक यथार्थ और फैन्टैसी की सीमा रेखा (सूर्यास्त) पर घटित होता है। कभी वह दीपंकर के घर में और कभी मन (अवचेतन) में रूपायित होता है। इसी शीर्षक से नाटककार की एक कविता भी है, जिसके प्रकाश में निश्चय ही इस चरित्र और नाटक के मूलभाव को अधिक गहराई से समझा जा सकता है। ‘सूर्यास्त’ की व्याख्या करता यह सूर्यास्त देखिए-

तुम्हारे पार्श्व में
जब सूर्य डूब जायेगा
वहाँ एक निरालोक देश होगा
सुनसान अंतरिक्ष
और अस्पष्ट आकाश गंगा
तुम्हारे शरीर से होकर
चक्रवात गुजर जाने पर
तुम्हारी आँखों में रह जाएगा
महज एक खौफ़नाक अँधेरा
अँधेरा जो तुम हो
मैं डरकर लौट आऊँगा
राह टटोलते हुए
अपने निजी सन्नाटे में
वह सन्नाटा भी तुम हो

समग्रत: देखने पर कहा जा सकता है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर आधारित होने के बावजूद यह नाटक उससे आगे बढ़कर एक संवेदनशील व्यक्ति ही निजी अस्मिता, आकांक्षा और अस्तित्व की वास्तविक अर्थवत्ता के जटिल मनोवैज्ञानिक प्रश्न को नाटकीय स्तर पर प्रस्तुत करने का दिलचस्प प्रयत्न करता है। हिन्दी के अतिरिक्त इसे बांग्ला, पंजाबी तथा ओड़िया में भी अभिमंचित किया जा चुका है।

कवि-नाटककार जगन्नाथ प्रसाद दास के अनुसार, ‘‘हमारे समाज के सदियों से दलित और पीड़ित निम्न वर्ग के प्रति मेरी चिन्ता और सहानुभूति सदैव से रही है। मेरी धारणा है कि हम सबसे नीचे के आदमी के बारे में कभी गम्भीरता या ईमानदारी से नहीं सोचते, क्योंकि हम जानते हैं कि उसका उत्थान हमारे मूल्य पर होगा, इसलिए बड़ी-बड़ी बातें करने के बावजूद उसके उत्थान के लिए कोई ठोस काम करना नहीं चाहते। सम्भवत: यही कारण है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों वाले सूर्यास्त के ठीक बाद जे. पी. दास निचले और पिछले वर्ग के दलित-दमित जीवन की विसंगतियों और समाज के अन्य (मध्य-उच्च) वर्गों के साथ उसके सम्बन्धों की विडम्बना को अपने नये नाटक सबसे नीचे का आदमी का आधार बनाते हैं। गांधीजी के एक अचूक ताबीज से प्रेरित अन्त्योदय का यह नाटक यद्यपि जयप्रकाश नारायण के (बिहार) आन्दोलन के समय (1977) में लिखा और खेला गया था, परन्तु आज मण्डल कमीशन को लेकर जनता दल की विवादास्पद भूमिका के सन्दर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है।

जनमत को भेड़ चाल मानकर अपने इशारे पर उसे हाँकने और चलाने वाला सत्ताधारी पूंजीपति वर्ग (बाबूजी) संसार की अन्य भौतिक वस्तुओं की तरह साहित्य, कला और रंगमंच को भी हथियाये हुए हैं। वह अपनी इच्छा और आवश्यकता के हिसाब से कभी-कभी नये फैशन की तरह, समाज के निचले/पिछले वर्ग का हिमायती और उद्धारक बनने का नाटक भी करता है। परन्तु जब वही दमित-दलित आदमी एक समूह के रूप में जागरूक होकर उठ खड़ा होता है और मनुष्य की तरह अपने जीने के मौलिक अधिकार के लिए संघर्ष करने को तैयार होता है तो यही पूंजीपति/सत्ताधारी वर्ग उसे मसल डालने के लिए कैसे-कैसे खेल खेलता है और मध्यम-वर्ग अपने निहित स्वार्थों के लिए कैसे उसके षड्यन्त्र का मोहरा बनता है-यह नाटक शोषण की इस सनातन प्रक्रिया का दिलचस्प रूपायन करता है। दूसरों को विद्रोह के लिए भड़काने और नयी चेतना पैदा करने के बावजूद स्वयं साड़ी, गाड़ी और बाड़ी (बंगले) के लालच में अहिल्या बनी बाबूजी के चंगुल में फँसी रहने वाली मीना ही नहीं बल्कि मौलिकता की रचनात्मक चुनौती स्वीकारने के बजाय शेक्सपियर के अनुवाद का निरापद और आसान रास्ता चुनने वाला बुद्धिजीवी लेखक प्रोफेसर तथा विवश स्थिति में फँसी हुई प्रेमिका की मुक्ति का हल ढूँढ़ने के बजाय माँ-बाप की पसन्द की लड़की से शादी करने और नौकरी का कनफर्मेशन पाने को अधिक महत्व देने वाला युवक कुमार भी वास्तव में बाबूजी की ‘रखैल’ ही है। ये आक्रोश-विद्रोह की लम्बी-चौड़ी हवाई बातों के अलावा व्यवहारत: कुछ नहीं करते।

परन्तु इस क्रूर व्यवस्था और इसके नपुंसक परिवेश में एक ऐसा आदमी रामू-भी है जो पूरी वफ़ादारी के साथ अपने स्वामी की सेवा करता है। लेकिन अन्याय और अत्याचार की एक सीमा के बाद वह सीना तानकर और मुट्ठी बाँधकर उठ खड़ा होता है-क्योंकि उसे कुछ भी खोने का भय नहीं हैं-क्योंकि उसके पास खोने के लिए कुछ है ही नहीं। यही वह वर्ग है जिसे मार्क्स ने एक होकर निर्णायक लड़ाई लड़ने को कहा था। भले की आज उसे बन्दर का नाच करने और मदारी का जम्बूरा बनने को विवश होना पड़ रहा हो। परन्तु मानव-जाति का भविष्य अब इसी के हाथों में है और इसके उदय/उत्थान के लिए कोई बाहर से नहीं आयेगा- सारी प्रतीक्षा निरर्थक है-इसे स्वयं उठना और जूझना होगा। मध्यवर्गीय कुमार द्वारा मूंगफलियाँ खाकर फेंका गया खाली लिफाफा ही दूसरे अंक के अन्त तक आते-आते सबसे नीचे के आदमी रामू के हाथों में पड़कर (श्याम बेनेगल की बहुचर्चित फिल्म अंकुर के अन्त में एक बच्चे द्वारा जमींदार की हवेली पर फेंके गये छोटे से पत्थर की तरह) व्यवस्था विरोध का एक सशक्त प्रतीक बन जाता है। परन्तु यह प्रतीक अपनी सम्पूर्ण सांकेतिकता और व्यंजनात्मकता के बावजूद सच्चे और पूरे विरोध को प्रदर्शित नहीं करता क्योंकि यह लिफाफा एक मज़ाक की तरह फूटता है। असली ‘प्रोटैस्ट’ तो तीसरे अंक के अन्त में बाहर से गोली चलने की आवाज से शुरू होता है। नाटक में समस्या का कोई निश्चित समाधान नहीं है। नाटकाकार के अनुसार, उसे अन्त तक अनुत्तरित ही रहने दिया गया है। जैसे वह बन्द लिफाफा जिसमें बम भी हो सकता है और गुलदस्ता भी ठीक लेडी एण्ड दि टाइगर वाली कहानी की तरह जिसमें पता नहीं कि लेडी आएगी या टाइगर ये सवाल दर्शक-पाठक और निर्देशक की सोच पर छोड़ दिया गया है।’’

नाटक का तीसरा अंक चालाक पूँजीपति (वर्ग) द्वारा दलितों के इस संघर्ष को खत्म करने के लिए अपनाये जाने वाले विविध हथकण्डों का चित्रण करता है। परन्तु अन्त में तमाम सामाजिक शक्तियों का ध्रुवीकरण होता है। प्रोफेसर और कुमार बाबूजी के पीछे मार्च करते हुए बाहर चले जाते हैं और मीना रामू/श्याम के साथ आकर खड़ी होती है।
सबसे नीचे का आदमी का शिल्प सूर्यास्त की अपेक्षा अधिक सुगठित है। रचनाकार ने इस यथार्थवादी तीन अंकीय आलेख में ‘नाटक में नाटक’ की युक्ति का रोचक प्रयोग किया है। अहिल्या-सी मीना का राम के स्पर्श से सचेतन होना, राम और श्याम के अबूझ तादात्म्य और अन्त में लिफाफे के रहस्यमय कुतूहल से नाटकीयता आद्यन्त बनी रहती है।

यद्यपि यह सच है कि गांधी-वाणी पढ़ने वाले रामू के हिंसक जुलूस का नायक होने से बहुत संगति नहीं बैठती, दूसरे अंक के बाद का नाटक उसका स्वाभाविक/अनिवार्य विकास नहीं लगता, तीसरे अंक में ‘प्लान आफ एक्शन’ के बाद से सारा नाटक लिफाफे के टाइम बम या छह बजे के सस्पैंस से बँधकर अपनी गम्भीरता काफी हद तक खो देता है और बाबूजी के चैपलिन और हिटलर की पोशाकें पहनकर मुखौटे बदलने में मोहित चटर्जी के गिनीपिग का स्मरण भी आता है। परन्तु इसमें शक नहीं कि इन तमाम विवादास्पद सीमाओं के बावजूद यह नाटक कुछ हास्य-व्यंग्यपूर्ण संदर्भों और दिलचस्प शिल्प प्रयोगों के कारण रोचक, कथ्य की तीव्रता एवं प्रांसगिकता के कारण उत्तेजक तथा दाम्पत्य सम्बन्धों के परिचित दायरे से बाहर निकलकर सामान्यजन के व्यापक सत्य और उसके सरोकारों से जुड़ने के कारण महत्वपूर्ण रचना बन गया है। दिल्ली में ‘यवनिका’ द्वारा मनोज भटनाकर निर्देशित इसके प्रदर्शन में पंकज कपूर (रामू) और बनवारी तनेजा (बाबूजी) जैसे कुशल अभिनेताओं ने अपने-अपने चरित्रों को और भी गहराई और विश्वसनीयता देकर नाटक को अधिक मनोरंजक एवं सार्थक बना दिया था। पुस्तक के रूप में इसका प्रकाशन 1981 में हुआ।

इसके बाद 1986 में डॉ. जगन्नाथ प्रसाद दास के दो एकांकियों का एक संकलन एक-दूसरे के लिए भी प्रकाशित हुआ। अचानक और एक-दूसरे के लिए-दोनों मध्यवर्गीय शहरी परिवेश और पात्रों वाले एकांकी हैं। इनमें विवाह के सन्दर्भ में प्रेम और दहेज प्रथा जैसी ज्वलंत समस्याओं को हास्य-व्यंग्य तथा विडम्बनापूर्ण स्थितियों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। रचनाकाल की दृष्टि से सम्भवत: यह 1969-70 के आसपास की रचनाएं हैं, जब लेखक ने रेडियो और मंच के लिए कई छोटे-छोटे नाटक लिखे थे और बडे़ नाटकों के लिए मानो अभ्यास के दौर से गुज़र रहे थे।
‘सबसे नीचे का आदमी’ में प्रोफेसर नाटककार एक स्थान पर स्वीकार करता है कि, ‘सबने कहा कि आधुनिक नाटककार होने के लिए एब्सर्ड नाटक लिखने पड़ेंगे। मैंने इसीलिए लिखे...।’ शायद तथाकथित ‘आधुनिक नाटककार’ बनने की दबी इच्छा ने ही जे.पी.दास को असंगत नाटक जैसा ‘एक्सपैरिमैंटल’ ‘बेतुका एब्सर्ड’ या ‘अनाटक’ लिखने की ओर प्रेरित किया होगा।

दूसरे विश्व-युद्ध के बाद यूरोप में जीवन की निस्सारता, निरर्थकता और तर्कहीनता को लेकर एब्सर्ड नाटकों की जो शुरूआत हुई उसने कथा-विन्यास, चरित्रांकन, भाषा-संवाद, संरचना शैली और प्रस्तुतीकरण इत्यादि की दृष्टि से नाटक के रूप, रंग, उद्देश्य और प्रभाव को आमूलचूल बदल दिया। बैकेट, जेने, आयोनैस्को, पिंटर आल्बी जैसे बहुचर्चित एवं विश्वविख्यात नाटककारों का प्रभाव भारतीय नाटक और रंगमंच पर न पड़ता, यह लगभग असम्भव ही था। जीवन और जगत के फूहड़पन, छिछलेपन और बेहूदेपन की विडम्बना को अतिरंजना और मज़ाक के हास्यास्पद स्तर तक खींचकर भीतर की त्रासदी और करुणा को बेढंगी परिस्थितियों और अविश्वसनीय अजीब पात्रों तथा विश्रृंखलित सम्वादों के जरिए अपने मंतव्य को अभिव्यक्त करने का प्रयास हिन्दी में तो भुवनेश्वर के ताँबे के कीड़े (1946) से ही आरम्भ हो गया था।

फिर सातवें दशक में विपिनकुमार अग्रवाल, लक्ष्मीकांत वर्मा, शम्भूनाथ सिंह तथा सत्यव्रत सिन्हा जैसे रचनाकारों ने इस दिशा में पर्याप्त काम किया। परन्तु ओड़िया में मनोरंजनदास के बाद शायद जगन्नाथ प्रसाद दास का यह असंगत नाटक ही इस ‘नयी’ रंगशैली का एकमात्र उल्लेखनीय नाटक है। रचना में आये एक सम्वाद/अन्तर्साक्ष्य को प्रमाण मान लें तो इसका रचनाकाल 1979 के आसपास का होना चाहिए। यह वही समय है जब लगभग सभी भारतीय भाषाओं में असंगत या विसंगति नाटकों का बोलबाला था। ओड़िया में एब्सर्ड के लिए ‘उद्भट’ शब्द प्रचलित है। यही कारण है कि पहले पहल यह रचना ‘झंकार’ में ‘उद्भट नाटक’ के नाम से ही छपी थी। फिर अंग्रेजी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भारतीय नाट्य-पत्रिका ‘इनैक्ट’ में इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ और उसके बाद 1989 मे ‘एब्डसर्डप्ले’ शीर्षक से ही यह नाटक कलकत्ता से अत्यन्त सुरूचिपूर्ण रूप में पुस्तकाकार छपा। और अब इसके हिन्दी अनुवाद की बारी है।

तमाम एब्सर्ड नाटकों की तरह कथानक एवं सम्वादों की अतार्किकता तथा पात्रों की अयथार्थता के साथ-साथ जीवन की ऊब, निराशा, अन्तहीन प्रतीक्षा और निस्सारता वगैरह तो यहाँ भी है किन्तु इनके अलावा भी इसमें बहुत कुछ है। इसका मूल मंतव्य समय और वास्तविकता के जटिल सम्बन्धों को समझने-समझाने का है।
‘काल’ यानी समय और मृत्यु और इन्तजार का विषय लेखक को प्रारम्भ से ही सम्मोहित करता रहा है लेखक की अनेक कविताएँ इसी विषय को लेकर हैं और अद्यतन संकलन का तो नाम ही लौटते समय है। सूर्यास्त में यही सवाल प्रौढ़ावस्था के माध्यम से उभरा है। कुछेक सम्वाद दृष्टव्य हैं-
‘‘आपके जीवन की जैसे शाम शुरू हो गयी हो और अब सिर्फ रात का इंतजार है।
मेरा खयाल था, इशारे से वक्त को रोक दूँगा।
‘‘आज रात और कल सुबह तक बहुत कुछ बदल जायेगा।’’

‘‘चलो, हम समय के समुद्र में तैरते-तैरते बीस साल पीछे लौट चलें।’’
‘‘मैंने आज सूर्य को रोक दिया है। जब तक मैं फिर से जन्म नहीं लेता, सूरज नहीं डूबेगा।’’
इसी प्रकार सबसे नीचे का आदमी में प्रोफेसर और कुमार का यह वार्तालाप भी ध्यान देने लायक है-
प्रोफेसर: (स्वयं से कहते हुए) और कुछ करने से कोई फायदा नहीं है। समय समाप्त हो गया...। तथा
प्रोफेसर: जो साथ आये और जो छूट गये। जितनी प्रतिज्ञाएँ पूरी हो गयीं, और जितनी शेष रह गयीं। समय ने जो सब छीन लिया।

कुमार : समय नहीं टाइम। टाइम बम।
‘समय’ एक बहती हुई तरल-अमूर्त सत्ता (?) है जो अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक ही बिन्दु पर अपने में समेटे है या फिर सतत प्रवाहमान है और चक्राकार गति से आगे बढ़ती हुई लगने के बावजूद पता नहीं कब और कैसे घूमकर फिर उसी (आरम्भिक) बिन्दु से जा मिलती है। उसे रोक सकने या लौटा लाने की बात तो हम कर सकते हैं किन्तु वास्तव में वह हमारी सामर्थ्य से बाहर है। गालिब ने कहा था, मैं क्या वक्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ।’’ और इस नाटक के बूढ़े के शब्दों में, ‘‘तू तो एक विराटशून्य है।’’ लेकिन मूलत: यह ‘काल’, ‘समय’, ‘वक्त’, या ‘टाइम’ का बुनियादी और महत्वपूर्ण सवाल इतना अमूर्त और उलझा हुआ है कि पूर्व और पश्चिम के चिन्तक चिरन्तन काल से इसका चिन्तन करते रहकर भी आज तक किसी एक सर्वसम्मत निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके हैं।

जगन्नाथ प्रसाद दास ने इसी ‘समय’ के मूल स्वरूप व्यवहार और प्रक्रिया को बारीकी से समझने और नाटकीय स्तर पर जगत और जीवन से इसके बहुविध को रिश्ते को प्रस्तुत करने के लिए ही असंगत नाटक की रचना की है। जाहिर है कि इस प्रकार के गम्भीर-दार्शनिक/वैज्ञानिक सूक्ष्म विषय और उसके अबूझ विडम्बनापूर्ण चरित्र को पेश करने के लिए किसी अयथार्थ-से माध्यम का ही इस्तेमाल किया जा सकता था। इसीलिए इस नाटक का स्थान अनिश्चितता है। कभी रेलवे प्लेटफॉर्म, कभी एअरपोर्ट, कभी पार्टी-स्थल और कभी कुछ और जहाँ कुछ पात्र प्रतीक्षा कर सकें, मिल सकें, आ-जा सकें।
नाटक एक अधेड़ और बूढ़े की समय-चर्चा से आरम्भ होता है। फिर वहाँ घर छोड़कर भाग रही लड़की आती है जो प्लेटफॉर्म पर प्रेमी और गाड़ी के आने का इंतजार कर रही है। युवक आता है जो लड़की का प्रेमी नहीं है।

लड़की-एक का प्रतिरूप लड़की-दो आती है। घड़ी के चेहरे वाला आदमी फैंसीड्रेस में होने की बात करने के बावजूद वास्तव में समय का ही प्रतीक है और त्रिकालदर्शी कैलेण्डर भी उसी का एक आयाम प्रदर्शित करता है। अधेड़ नाटककार है और युवक उसका स्टैनो बन जाता है। आरम्भिक दृश्य की पुनरावृत्ति होती है। युवक नाटककार को सुझाव देता है कि अच्छा नाटक लिखने के लिए ‘‘घटनाओं को घटित करना होगा। जो लोग यहाँ आयेंगे उन्हें लेकर घटनाचक्र की रचना करनी होगी।’’ इसके बाद जे. पी. दास नाटक के मूल असंगत ढांचे के भीतर ही मनोरंजन के लिए सस्पैंस का अपना आजमाया हुआ हथियार ‘पिस्तौल’ (जिसका उपयोग सूर्यास्त तथा सबसे नीचे का आदमी में भी किया गया है।)

निकाल लेते हैं। चोर को पकड़ने वाला संदिग्ध-सा पुलिसमैन आ जाता है। ‘कायाकल्प टैबलेट’, ‘जज साहब हैं ?’ जैसे सम्वादों की पुनरावृत्ति बार-बार होती है। एकरसता और समय की माप की उलझन से टकराते हुए नाटककार विष्णु और नारद की पुराण कथा के बहाने माया की व्याख्या भी कर देता है और मानवीय सम्बन्धों में समय के सापेक्षवादी रूप की ओर भी इशारा कर देता है। अधेड़ आइंटाइन को उद्धृत करके काल की भौतिक सत्ता को नकार कर अतीत, वर्तमान और भविष्य के विभाजन को भ्रम के अतिरिक्त कुछ नहीं मानता। फिर वह सेंट अगस्टीन के एक वक्तव्य के समय को परिभाषित करने का प्रयत्न करता है। लड़कियाँ छोकरे को जबरदस्ती पकड़कर ले जाना चाहती हैं। पुलिस गोली चलाती है और घड़ीनुमा आदमी के जाने कहाँ से दौडकर बीच में आ-जाने से घड़ी मर जाता है। दूसरे अंक/दृश्य के आरम्भ में मरा हुआ घड़ीनुमा आदमी उठकर मुखौटा उतारता है और पता चलता है कि वह वास्तव में युवक ही है जो ‘समय’ (घड़ी) का अभिनय कर रहा था, जैसे कि शेष लोग। युवक और अधेड़ के बीच पहले एब्सर्ड नाटक और फिर समय को लेकर सैद्धान्तिक चर्चा होती है। इसके बाद फिर पहले वाले दृश्य की पुनरावृत्ति होती है। ‘समय की हत्या’ के मामले की तहकीकात होती है। मुकदमा चलता है। हर कोई स्वयं को हत्यारा मानता है। नाटक को आगे बढ़ाने की कोई सही दिशा न देखकर और उसे ‘एक ज़ोरदार क्लाइमैक्स’ के साथ खत्म करने के इरादे से पहले अंक के अंत को फिर से दोहरा दिया जाता है। मरा हुआ ‘घड़ी’ उठता है, मुखौटा उतारता है। वह बूढ़ा है। घड़ी के मुखौटे को हाथ में लिए बूढ़ा देर तक हँसता रहता है और नाटक यहीं खत्म हो जाता है।

विवेच्य नाटक में युवक एक स्थान पर अधेड़/नाटककार से कहता है कि ‘‘मैं जानता हूँ। तुम एक पारम्परिक नाटककार हो, पर अभिनय कर रहे हो एक असंगत नाटककार का।’’ यही कारण है कि आयोनेस्को, अदामोव, जेने और बेके को पढ़ने और उन्हें आदर्श मानने के बावजूद असंगत नाटक वास्तव में पूरी तरह पश्चिमी तर्ज का एब्सर्ड नाटक न होकर भारतीय असंगत नाटक ही है। चूंकि नाटककार का गम्भीर मूल कथ्य केवल इसी शिल्प में व्यक्त हो सकता था इसीलिए उसने उसे अपनाया। परन्तु बीच-बीच में कई स्थल ऐसे हैं जहाँ सम्वाद योजना और स्थितियाँ बाकायदा यथार्थवादी नाटक के काफी नजदीक पहुँची हुई लगती हैं। नाटक में सम्वादों, प्रसंगों, स्थितियों और दृश्यों की पुनरावृत्ति काल के आवर्ती चरित्र को रेखांकित करती है। अतीत, वर्तमान भविष्य जैसे माला की तरह एक धागे में पिरोए हुए हैं। समय के संदर्भ में संसार की वास्तविकता अर्थहीन अथवा तर्कहीन सच्चाई है। वास्तविकता के समक्ष समय (घड़ी) जैसे मृत है किन्तु फिर भी जीवित-हँसता हुआ और हमें मुँह चिढ़ाता हुआ सा।

समय (गणना) को निरर्थक-माया सिद्ध करने के लिए लेखक ने ‘विष्णु-नारद’ की पुराण कथा का रोचक प्रयोग किया है। यहाँ समय अपने तीनों आयामों में एक साथ मौजूद है।
जगन्नाथ प्रसाद दास के तीनों नाटकों को एक साथ देखने पर कई सामान्य विशेषताएँ आसानी से देखी जा सकती हैं। समय मृत्यु और प्रतीक्षा के बुनियादी सरोकारों की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। नाटक में नाटक का शिल्प स्थितियों के अमूर्तन, मुकदमा, मुखौटे प्रसिद्ध नाटककारों के नाम-संदर्भ प्रतीक, खेल (गैंसिस-गेम बन्दर का नाच, जम्बूरे का खेल....) रिवाल्वर/बन्दूक, मृत्यु-भय और सस्पैंस जैसे अनेक ऐसे तत्व हैं जिन्हें जे. पी. के नाट्य संसार में अलग से पहचाना जा सकता है। इसके बावजूद आप एक सच्चे प्रयोगधर्मी नाटककार हैं। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से कभी अपने आपको दोहराते नहीं है। आप अपना निजी मुहावरा और रूप तलाशने के लिए सदैव तत्पर एवं बेचैन रहते हैं। आपको नाटकों के हिन्दी अनुवादों ने निश्चय ही आधुनिक ओडिया नाटक से हमारा दिलचस्प साक्षात्कार कराया है। आपकी रंगधर्मिता ने समकालीन हिन्दी नाटक और रंगमंच को समृद्ध किया है।

165 नेहरू अपार्टमैन्ट्स
आउटर रिंग रोड,
नयी दिल्ली-110019

-डॉ. जयदेव तनेजा


एक



(अँधेरा धीरे-धीरे सिमट जाता है। मंच पर प्रकाश फैल जाने पर दिखता है कि वहाँ अस्त-व्यस्त बैठने को केवल कुछ जगह है और कुछ खास नहीं। मंच पर बैठा बूढ़ा आदमी असन्तुष्ट सा कभी एक स्थान पर बैठता है, फिर उठकर दूसरी जगह जा बैठता है। कुछ समय बाद वह आँख बंद कर कुछ सोचने लगता है। बहुत देर तक। उसके बाद सो जाता है।
एक अधेड़ आदमी अन्दर आता है। आकर बूढ़े के पास बैठ जाता है। बूढ़ा जीवित है या मृत, देखता है। उसके बाद उसे जोर से पुकारता है)
अधेड़ः जी, जरा सुनिएगा ?
(बूढ़ा कोई उत्तर नहीं देता। अधेड़ दुबारा प्रश्न पूछता है। बूढ़ा फिर निरुत्तर। अन्त में अधेड़ बूढ़े के कान के पास जाकर घड़ी रख देता है। अबकी बूढ़ा हड़बड़ाकर उठ बैठता है)
बूढ़ाः क्या बज रहे होंगे ?
अधेड़ः पच्चीस मिनट।

बूढ़ाः कितने बजकर पच्चीस मिनट ?
अधेड़ः मैं कैसे बता सकता हूँ ? मेरी घड़ी में घण्टे की सुई है भी क्या ?
बूढ़ाः तो तुम समय का अन्दाजा कैसे लगाते हो ?
अधेड़ः मेरे लिए तो केवल मिनट जानना ही काफी है। जैसे कुछ लोगों के लिए केवल घण्टे जानना जरूरी होता है। क्या बजा है पूछने पर लोग बताते हैं—चार बजकर पच्चीस मिनट। लेकिन कोई भी यह नहीं कहता 1979 अगस्त महीने की 17 तारीक के दिन के चार बजकर पच्चीस मिनट। कुछ बातें बताई जातीं हैं और बाकी समझने की होती हैं। यदि मेरी घड़ी में बड़ी सुई होती तो भी कैसे जानते कि यह दिन है या रात ?


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